नहंिी अधययन नन्पन्ि ः आठ्वीं कक्ा ·...

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Transcript of नहंिी अधययन नन्पन्ि ः आठ्वीं कक्ा ·...

  • नहंिी अधययन नन्पन्ि ः आठ्वीं कक्ा

    न्वि् याथथी – y धरधरि धरष्य पर आिा र्त पाठ् ्यसामग्री र अन्य साधहत्य प कर चचावा कर्ते ए द्र्त राचि कर्ते ह ्तथा

    आश्य को सम ्ते ए सर छ, शु एरं मािक लेिि ्तथा कद्री्य भार को धलि्ते ह । y धहंदी भाषा म धरधभनि प्रकार की सामग्री को प कर ्तथा धरधभनि ो्त से प्रा ्त सूचिा , सरषिण, धट पणी

    आधद को प्रस्तु्त कर उपल ि जािकारी का ्यो ्य संकलि, संपादि कर्ते ए लेिि कर्ते ह । y प कर अप रधच्त प रखसथध्त्य र घटिा की क पिा कर्ते ए गुट चचावा म सहभागी होकर उसम आए

    धरशेष उ रण , राक््य का अपिे िोलचाल ्तथा संभाषण म प्र्योग कर प रचचावा, भाषण आधद म अपिे धरचार को मौखिक धलखि्त ंग से ्यक््त कर्ते ह ।

    y धरधरि संरेदिशील मु धरष्य जैसे- जाध्त, िमवा, रंग, धलंग, रीध्त- रराज के िारे म अपिे धमत्र , अध्यापक ्या प ररार से प्र ि पूछ्ते ह ्तथा संिंधि्त धरष्य पर उधच्त श द का प्र्योग कर्ते ए िाराप्रराह संराद सथाधप्त कर्ते ह एरं लेिि कर्ते ह ।

    y धकसी सुिी ई कहािी, धरचार, ्तक, प्रसंग आधद के भारी प्रसंग का अथवा सम ्ते ए आगामी घटिा का अिुमाि कर्ते ह, धरशेष धिंद को िोजकर उिका संकलि कर्ते ह ।

    y प ी ई सामग्री पर धचं्ति कर्ते ए िेह्तर सम के धलए प्र ि पूछ्ते ह ्तथा धकसी प रधच्त अप रधच्त के साषिातकार हे्तु प्र ि धिधमवा्त कर्ते ह ्तथा धकसी अिु छेद का अिुराद एरं धल ्यं्तरण कर्ते ह ।

    y धरधभनि पठि सामधग्र्य म प्र्युक््त उप्योगी आलंका रक श द, महाि धरभूध्त्य के कथि, मुहाररलोकाेख ्य -कहार्त , प रभाषा , सूत्र आधद को सम ्ते ए सूची ििा्ते ह ्तथा धरधरि ्तकिीकाें का प्र्योग करके अपिे लेिि को अधिक प्रभारी ििािे का प्र्यास कर्ते ह ।

    y धकसी पा ्यरस्तु को प िे के दौराि सम िे के धलए अपिे धकसी सहपाठी ्या धशषिक की मदद लेकर आलेि, अन्य संदभवा साधहत्य का द् धरभाधषक श द संग्रह, ग्राधफक्स, रडवाआटवा, धपक्टोग्राफ आधद की सहा्य्ता से श दकोश ्तै्यार कर्ते ह र प्रसार माध्यम म प्रकाधश्त जािकारी की आलंका रक श दारली का प्रभारपूणवा ्तथा सहज राचि कर्ते ह ।

    y अपिे पाठक, धलििे एरं लेिि के उ े ्य को सम कर अपिा म्त प्रभारी ्तरीके से धलि्ते ह । y सुिे ए का्यवाक्रम के ्त ्य , मुख्य धिंद , धरररण एरं पठिी्य सामग्री म रधणवा्त आश्य के राक््य एरं मु

    का ्ताधकक एरं सुसंगध्त से पुि समरण कर राचि कर्ते ह ्तथा उिपर अपिे मि म िििे राली छधि्य र धरचार के िारे म धलखि्त ्या ेलधलधप म अधभ ्यख कर्ते ह ।

    y भाषा की िारीधक्य ्यरसथा का ्यथार्त रणवाि, उधच्त धरराम, िलाघा्त, ्ताि-अिु्ताि के साथ शु उ चारण, आरोह-अररोह, ल्य-्ताल को एकाग्र्ता से सुि्ते एरं सुिा्ते ह ्तथा पठि सामग्री म अं्तधिवाधह्त आश्य, कद्री्य भार अपिे श द म ्यक््त कर्ते ह ।

    y धरधभनि अरसर संदभ म कही जा रही दसर की िा्त , सुिे ए संराद, रक््त ्य, भाषण के प्रमुि मु को पुि प्रस्तु्त कर्ते ह ्तथा उिका उधच्त प्रा प म रृत्तां्त लेिि कर्ते ह ।

    y परेिा ्तथा श द संके्त के आिार पर आलंका रक लेिि ्तथा पोसटर, धर ापि म धरधरि ्तरीक र शैधल्य का प्र्योग कर्ते ह ।

    y दैधिक जीरि से अलग धकसी घटिा खसथध्त पर धरधभनि ्तरीके से सृजिातमक ंग से धलि्ते ह ्तथा प्रसार माध्यम से रा टट्री्य प्रसंग घटिा संिंिी रणवाि सुि्ते र सुिा्ते ह ्तथा भाषा की धभनि्ता का समादर कर्ते ह ।

    यह अपेक्ा है नक िस्वीं कक्ा के अंि िक न्वि् यानथ्णयों में भाषा न्वषयक ननमननलतखि अधययन नन्पन्ि न्वकनसि हों ।

  • शासन ननर्णय क्रमांक : अभयास-२११६/(प्र.क्र.4३/१६) एसडी-4 निनांक २5.4.२०१६ के अनुसार समन्वय सनमनि का गठन नकया गया । नि. २९.१२.२०१७ को हुई इस सनमनि की बैठक में यह पाठ् यपुसिक ननरा्णररि करने हेिु मानयिा प्रिान की गई ।

    नहंिी

    आठ्वीं कक्ासुलभभारिी

    महाराष्ट्र राजय पाठ् यपुसिक नननम्णिी ्व अभयासक्रम संशोरन मंडळ, पुरे

    मेरा नाम है &

    आपके समाटवाफोि म द् रारा, पुस्तक के प्रथम पृ ठ पर . . के माध्यम से धडधजटल पाठ् ्यपुस्तक एरं प्रत्येक पाठ म

    अं्तधिवाधह्त . . मंे अध्य्यि-अध्यापि के धलए पाठ से संिंधि्त उप्युक््त क-श्ा ्य सामग्री उपल ि कराई जाएगी ।

  • प्रथमा्वृत्ि : २०१8 महाराष्ट्र राजय पाठ् यपुसिक नननम्णिी ्व अभयासक्रम संशोरन मंडळ, पुरे - 4११००4इस पुस्तक का सरावाधिकार महाराष्ट्र राज्य पाठ् ्यपुस्तक धिधमवा्ती र अभ्यासक्रम संशोिि मंडळ के

    अिीि सुरधषि्त है। इस पुस्तक का कोई भी भाग महाराष्ट्र राज्य पाठ् ्यपुस्तक धिधमवा्ती र अभ्यासक्रम संशोिि मंडळ के संचालक की धलखि्त अिुमध्त के धििा प्रकाधश्त िहीं धक्या जा सक्ता ।

    ©

    नहंिी भाषा सनमनि

    प्रकाशक :श्ी न्व्वेक उ्िम गोसा्वी

    धि्यंत्रकपाठ् ्यपुस्तक धिधमवा्ती मंडळ

    प्रभादेरी, मुंिई-२5

    नहंिी भाषा अभयासगट

    संयोजन : डॉ.अलका पो्तदार, धरशेषाधिकारी धहंदी भाषा, पाठ् ्यपुस्तक मंडळ, पुणे सौ. संध्या धरि्य उपासिी, धरष्य सहा्यक धहंदी भाषा, पाठ् ्यपुस्तक मंडळ, पुणे

    नननम्णनि : श्ी सखचि्तािंद आफळे, मुख्य धिधमवाध्त अधिकारीश्ी संदीप आजगांरकर, धिधमवाध्त अधिकारी

    अक्रांकन : भाषा धरभाग,पाठ् ्यपुस्तक मंडळ, पुणेकागज : ७० जीएसएम, क्रीमरोरमुद्ररािेश :मुद्रक :

    मुखपृष्ठ : सौ. पूिम धिखिल पोटेनितांकन : श्ी राजेश लरळेकर, म्यूरा डफळ

    ननमंनति सिसयश्ी ्ता.का सू्यवारंशी सौ. संगी्ता सारं्त

    डॉ.हेमचंद्र रैद् ्य - अध्यषि डॉ.छा्या पाटील - सदस्य प्रा.मैिोद् दीि मुल्ा - सदस्यडॉ.द्यािंद ध्तरारी - सदस्यश्ी रामधह्त ्यादर - सदस्यश्ी सं्तोष िोत्रे - सदस्य डॉ.सुधिल कुलकणणी - सदस्य श्ीम्ती सीमा कांिळे - सदस्य डॉ.अलका पो्तदार - सदस्य - सधचर

    श्ी संज्य भारद् राजसौ. रंजिा धपंगळे सौ. रृंदा कुलकणणी डॉ. प्रमोद शुक्लश्ीम्ती पूधणवामा पांडे्यडॉ. शुभदा मोघेश्ी िन्यकुमार धिराजदारश्ीम्ती मा्या कोथळीकरश्ीम्ती शारदा धि्यािीडॉ. रतिा चौिरीश्ी सुमं्त दळरीश्ीम्ती रजिी महैसाळकरडॉ. रषावा पुिरटकर

    डॉ. आशा री. धमश्ाश्ीम्ती मीिा एस. अग्ररालश्ीम्ती भार्ती श्ीरास्तरडॉ. शैला ललराणीडॉ. शोभा िेलिोडेडॉ. िंडोपं्त पाटीलश्ी रामदास काटेश्ी सुिाकर गारंडेश्ीम्ती गी्ता जोशीश्ीम्ती अचवािा भुसकुटे डॉ. री्ता धसंहसौ. शधशकला सरगर श्ी एि. आर. जेरेश्ीम्ती धिशा िाहेकर

  • प्रसिा्वना

    (डॉ. सुननल मगर)संिालक

    महाराष्ट्र राज्य पाठ् ्यपुस्तक धिधमवा्ती र अभ्यासक्रम संशोिि मंडळ पुणे-०4

    नप्रय न्वि् यानथ्णयो,

    िुम सब पाँि्वीं से साि्वीं कक्ा की नहंिी सुलभभारिी पाठ् यपुसिक से अच्ी िरह पररनिि हो और अब आठ्वीं नहंिी सुलभभारिी पढ़ने के नलए उ्सुक होगे । रंग-नबरंगी, अनिआकष्णक यह पुसिक िुमहारे हाथों में सौंपिे हुए हमें अिी्व हष्ण हो रहा है ।

    हमें ज्ाि है नक िुमहें कन्विा, गीि, गजल सुनना-पढ़ना नप्रय लगिा है । कहाननयों की िुननया में न्विरर करना मनोरंजक लगिा है । िुमहारी इन भा्वनाओं को दृन्टगि रखिे हुए इस पाठ् यपुसिक में कन्विा, गीि, गजल, पि, िोहे, नई कन्विा, ्वैन्वधयपूर्ण कहाननयाँ, लघुकथा, ननबंर, हासय-वयंग्य, संसमरर, साक्ा्कार, भाषर, सं्वाि, पत आनि सानहन्यक न्वराओं का समा्वेश नकया गया है । ये न्वराएँ मनोरंजक होने के साथ-साथ ज्ानाज्णन, भाषाई कौशलों / क्मिाओं के न्वकास, रा्टट्रीय भा्वना को सुदृढ़ करने ए्वं िररत ननमा्णर में भी सहायक होंगी । इन रिनाओं के ियन के समय आयु, रुनि, मनो्वैज्ाननक ए्वं सामानजक सिर का सजगिा से धयान रखा गया है ।

    अंिरजाल ए्वं नडनजटल िुननया के प्रभा्व, नई शैनक्क सोि, ्वैज्ाननक दृन्ट को समक् रखकर ‘श््वरीय’, ‘संभाषरीय’ ‘पठनीय’, ‘लेखनीय’, ‘मैंने समझा’, ‘कृनि परू्ण करो’, ‘भाषा नबंिु’ आनि के माधयम से पाठ् यक्रम को पाठ् यपुसिक में प्रसिुि नकया गया है । िुमहारी कल्पनाशन्ि, सृजनशीलिा को धयान में रखिे हुए ‘स्वयं अधययन’, ‘उपयोनजि लेखन’, ‘मौनलक सृजन’, ‘कल्पना पल्ल्वन’ आनि कृनियों को अनरक वयापक ए्वं रोिक बनाया गया है । इनका सिि अभयास ए्वं उपयोग अपेनक्ि है । माग्णिश्णक का सहयोग लक्य िक पहुँिाने के माग्ण को सहज और सुगम बना ििेा है । अिः अधययन अनुभ्व की पूनि्ण हेिु अनभभा्वकों, नशक्कों का सहयोग और माग्णिश्णन िुमहारे नलए ननत्िि ही सहायक नसि् र होंगे । आपकी नहंिी भाषा और ज्ान में अनभ्वृि् नर के नलए ‘एेप’ ए्वं ‘्यू.आर.कोड,’ के माधयम से अनिरर्ि दृक-श्ावय सामग्ी उपलब्र कराई जाएगी । अधययन अनुभ्व हेिु इनका ननत्िि ही उपयोग हो सकेगा ।

    आशा ए्वं पूर्ण न्व््वास है नक िुम सब पाठ् यपुसिक का समुनिि उपयोग करिे हुए नहंिी न्वषय के प्रनि न्वशेष अनभरुनि निखािे हुए आ्मीयिा के साथ इसका स्वागि करोगे ।

    पुरेनिनांक ः 8 अप्रैल २० 8, अषि्य्तृ्ती्याभार्ती्य सौर २8 चैत्र 4०

  • पहली इकाई

    िूसरी इकाई

    * अनुक्रमनरका *

    क्र. पाठ का नाम न्वरा रिनाकार पृ्ठ . हे मा्तृभूधम कधर्ता रामप्रसाद धिधसमल -२

    २. रा रस कौि संरादातमक कहािी धरभा रािी -5

    . िािूि क््य ि ्ते ह रैचा रक धििंि आचा्यवा हजारीप्रसाद द् धररेदी -8

    4. गार-शहर िरगी्त प्रदीप शुक्ल - ०

    5. मिुिि साषिातकार अिुराग रमावा -

    . जरा ्यार से िोलिा सीि लीजे गजल रमेश दत्त शमावा 4- 5

    ७. मेरे रजा साहि संसमरण सुजा्ता िजाज - 8

    8. पूणवा धरश्ाम हास्य- ्यं ्य कहािी सत्यकाम धरद् ्यालंकार -२२

    . अिमोल राणी दोहे पद

    सं्त किीर भक््त सूरदास

    २ -२4

    क्र. पाठ का नाम न्वरा रिनाकार पृ्ठ . िर्ती का आगि महके िई कधर्ता डॉ. प्रकाश दीधषि्त २5-२

    २. दो लघुकथाए लघुकथा ह र जोशी २७-२

    . लक हारा र रि एकांकी अरधरंद भटिागर ०-

    4. सौहादवा-सौमिस्य ि्ये दोहे जहीर कुरैशी 4- 5

    5. िे्ती से आई ्त दीधल्या पत्र पं. जराहरलाल िेह - 8

    . अंिा्युग गीध्तिाट् ्य का अंश डॉ. िमवारीर भार्ती -4

    ७. सरराज्य मेरा जनमधसद् ि अधिकार है

    भाषण लोकमान्य िाळ गंगािर धटळक 4२-44

    8. मेरा धरद्रोह मिोरै ाधिक कहािी सू्यवािाला 45-4. िहीं कुछ इससे ि कर गी्त सुधमत्रािंदि पं्त 5०-5

    वयाकरर, रिना न्वभाग ए्वं भा्वाथ्ण 5२-54

  • 1

    . िे मता्ृभूनम

    प्रस्तु् कवि्ा में काांव्कारी एिां सि्ांत्र्ा सेनानी कवि रामप्रसाद ‘विवसमल’ जी ने मा्ृभूवम के प्रव् अपने प्रेम एिां भव््भाि को व्य्् वक्या है । ्यहाँ आपने मा्ृभूवम की सेिा करने और देशवह् में वनछािर हो जाने की लालसा व्य्् की है ।

    ‘मा्ृभूवम की सेिा में जीिन अप्पण करना प्रत्येक मनतुष््य का क््पव्य है,’ इस कथन पर अपने विचार वलखो ।

    ज म ः १8९७, शाहजहाँपतुर (उ.प्र.) मृतयु ः१९२७, गोरखपतुर (उ.प्र.) पररचय ः रामप्रसाद ‘विवसमल’ भार् के महान सि्ांत्र्ा सेनानी ही नहीं िव्क उच्च कोवि के कवि, अनतुिादक, िहुभाषाविद ि सावहत्यकार भी थे । आपने देश की आजादी के वलए अपने प्राणों की आहुव् दे दी । ‘सरफरोशी की ्मन्ा...’ आपकी प्रवसद् ध रचना है । ‘विवसमल’ उपनाम के अव्रर्् आप ‘राम’ और ‘अज्ा्’ के नाम से भी लेख ि कवि्ाएँ वलख्े थे । प्रमुख कृन्यताँ ः ‘मन की लहर’, ‘आतमकथा’ आवद ।

    हे मा्ृभूवम ! ्ेरे चरणों में शीश निाऊँ ।मैं भव्् भेंि अपनी, ्ेरी शरण में लाऊँ ।।

    माथे पे ्ू हो चांदन, छा्ी पे ्ू हो माला;वजह् िा पे गी् ्ू हो मेरा, ्ेरा ही नाम गाऊँ ।।

    वजससे सपू् उपजें, श्ी राम-कृष्ण जैसे;उस धूल को मैं ्ेरी वनज शीश पे चढ़ाऊँ ।।

    माई ! समतुद्र वजसकी पद रज को वनत्य धोकर;कर्ा प्रणाम ्तुझको, मैं िे चरण दिाऊँ ।।

    सेिा में ्ेरी मा्ा ! मैं भेदभाि ्जकर;िह पतुण्य नाम ्ेरा, प्रव्वदन सतुनूँ-सतुनाऊँ ।।

    ्ेरे ही काम आऊँ, ्ेरा ही मांत्र गाऊँ ।मन और देह ्तुम पर िवलदान मैं जाऊँ ।।

    - रामप्रसाद ‘बिब्मल’

    पररचय

    पद् य संबंधी

    कल्पनता पल्लवन

    पहली इकाई

  • 2

    सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-( ) कृन् पूणथि करो ः

    ननमन नवरतामनचि् नताें के नताम नलखकर उनकता वता्य में प्रयोग करो ः। ; ? - ? ! ‘ ’ ‘‘ ’’ -

    ‘विकास की ओर िढ़्ा हुआ भार् देश’ से सांिांवध् महततिपूण्प का्ययों की सूची िनाओ ।

    ( ) कृन् पूणथि करो ः

    ( ) एक शब्द में उत्र नलखो ः१. कवि की वजह् िा पर इसके गी् हों -२. मा्ृभूवम के चरण धोने िाला -३. मा्ृभूवम के सपू् -4. प्रव्वदन सतुनने/सतुनाने ्योग््य नाम -5. मा्ृभूवम के चरणों में इसे निाना है -

    कवि मा्ृभूवम के प्रव् अवप्प् करना चाह्ा है

    (4) कनव्ता की पंन््यताँ पूणथि करो ःसेिा में ्ेरी ------------------;------------------------ ।।------------------------ ।

    --------------- िवलदान मैं जाऊँ ।।

    मा्ृभूवम की विशेष्ाएँ

    १.

    २.

    ३.

    4.

    शब्द वतानटिकतानवतानता झतुकानाशीश वसरनजि् वता जीभ

    रज धूलबनलदतान प्राणाहुव्, वनछािरदेि शरीर

    मैंने समझता------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

    उपयोनज् लेखन

    भतारता नबंदु

    सवयं अधययन

    शब्दों के आधतार पर कितानी नलखो ः ग्ांथाल्य, सिपन, पहेली, काँच

  • 3

    एक राजा था । उसके चार िेवि्याँ थीं । राजा ने सोचा वक इन चारों में से जो सिसे ितुद् वधम्ी होगी, उसे ही अपना राजपाि सौंपेगा । इसका फैसला कैसे हो? िह सोचने लगा । अां् में उसे एक उपा्य सूझ ग्या ।

    उसने एक वदन चारों िेवि्यों को अपने पास ितुला्या । सभी को गेहँू के सौ-सौ दाने वदए और कहा, ‘‘इसे ्तुम अपने पास रखो, पाँच साल िाद मैं जि इनहें माँगँूगा ्ि ्तुम सि मतुझे िापस कर देना ।’’

    गेहँू के दाने लेकर चारों िहनें अपने-अपने कमरे में लौि आईं । िड़ी िहन ने उन दानों को खखड़की के िाहर फेंक वद्या । उसने सोचा, ‘आज से पाँच साल िाद वप्ा जी को गेहँू के इन दानों की ्याद रहेगी ््या? और जो ्याद भी रहा ्ो ््या हुआ..., भांडार से लेकर दे दूँगी ।’

    दूसरी िहन ने दानों को चाँदी की एक वडबिी में डालकर उसे मखमल के थैले में िांद करके सतुरक्ा से अपनी सांदूकची में डाल वद्या । सोचा, ‘पाँच साल िाद जि वप्ा जी ्ये दाने माँगेंगे, ्ि उनहें िापस कर दूँगी ।’

    ्ीसरी िहन िस सोच्ी रही वक इसका ््या करँ । चौथी और छोिी िहन ्वनक िच्ची थी । शरार्ें करना उसे िहु् पसांद था । उसे गेहँू के भतुने दाने भी िहु् पसांद थे । उसने दानों को भतुनिाकर खा डाला और खेल में मग्न हो गई ।

    ्ीसरी राजकुमारी को इस िा् का ्यकीन था वक वप्ा जी ने उनहें ्यँू ही ्ये दाने नहीं वदए होंगे । जरर इसके पीछे कोई मकसद होगा । पहले ्ो उसने भी अपनी दूसरी िहनों की ्रह ही उनहें सहेजकर रख देने की सोची, लेवकन िह ऐसा न कर सकी । दो-्ीन वदनों ्क िह सोच्ी रही, वफर उसने अपने कमरे की खखड़की के पीछेिाली जमीन में िे दाने िो वदए । सम्य पर अांकुर फूिे । पौधे ् ै्यार हुए, दाने वनकले । राजकुमारी ने ्ै्यार फसल में से दाने वनकाले और वफर से िो वदए । इस ्रह पाँच िषयों में उसके पास ढेर सारा गेहँू ्ै्यार हो ग्या ।

    पाँच साल िाद राजा ने वफर चारों िहनों को ितुला्या और कहा- ‘‘आज से पाँच साल पहले मैंने ्तुम चारों को गेहँू के सौ-सौ दाने वदए थे और कहा था वक पाँच साल िाद मतुझे िापस करना । कहाँ हैं िे दाने?’’

    िड़ी राजकुमारी भांडार घर जाकर गेहँू के दाने ले आई और राजा को दे वदए । राजा ने पूछा, ‘‘््या ्ये िही दाने हैं जो मैंने ्तुमहें वदए थे ?’’

    - बिभा रानी

    . वताररस कौन

    प्रस्तु् सांिादातमक कहानी के माध्यम से विभा रानी जी का कहना है वक हमें उत्म फल प्राप्त करने के वलए सम्य और साधनों का सदुप्योग करना चावहए । जो ऐसा कर्ा है, िही जीिन में सफल हो्ा है ।

    ज म ः १९5९, मधतुिनी (विहार)पररचय ः िहुआ्यामी प्रव्भा की धनी विभा रानी वहांदी ि मैवथली की राष्िट्ी्य स्र की लेखखका हैं । आपने कहानी, गी्, अनतुिाद, लोक सावहत्य एिां नाि् ्य लेखन में प्रखर्ा से अपनी कलम चलाई है । आप समकालीन वफ्म, मवहला ि िाल विष्यों पर लोकगी् और लोक सावहत्य के क्ेत्र में वनरां्र काम कर रही है । प्रमुख कृन्यताँ ः ‘चल खतुसरो घर अपने’, ‘वमवथला की लोककथाएँ’, ‘गोनू झा के वकससे’ (कहानी सांग्ह), ‘अगले-जनम मोहे विवि्या न कीजो’, (नािक)‘समरथ-CAN’ (द् विभाषी वहांदी-अांग्ेजी का अनतुिाद), ‘विल िेलर की डा्यरी’ आवद ।

    पररचय

    गद् य संबंधी

    मौनलक सृजन

    अपने आस-पास घवि् च्तुराई से सांिांवध् घिना वलखो ।

  • 4

    पहले ् ो राजकुमारी ने ‘हाँ’ कह वद्या । मगर राजा ने वफर कड़ककर पूछा, ्ि उसने सच्ची िा् ि्ा दी ।

    राजा ने दूसरी राजकुमारी से पूछा - ‘‘्तुमहारे दाने कहॉां हैं ?’’

    दूसरी राजकुमारी अपनी सांदूकची में से मखमल के खोलिाली वडबिी उठा लाई, वजसमें उसने गेहँू के दाने सहेजकर रखे थे । राजा ने उसे खोलकर देखा - दाने सड़ गए थे ।

    ्ीसरी राजकुमारी से पूछा - ‘‘्तुमने ््या वक्या उन दानों का ?’’्ीसरी ने कहा - ‘‘मैं इसका उत्र आपको अभी नहीं दँूगी, ््योंवक

    जिाि पाने के वलए आपको ्यहाँ से दूर जाना पड़ेगा और मैं िहाँ आपको कल ले चलँूगी ।’’

    राजा ने अि चौथी और सिसे छोिी राजकुमारी से पूछा । उसने उसी िेपरिाही से जिाि वद्या-‘‘उन दानों की कोई कीम् है वप्ा जी? िैसे ्ो ढेरों दाने भांडार में पड़े हैं । आप ्ो जान्े हैं न, मतुझे गेहँू के भतुने दाने िहु् अचछे लग्े हैं, सो मैं उनहें भतुनिाकर खा गई । आप भी वप्ा जी, वकन-वकन चक्करों में पड़ जा्े हैं ।’’

    सभी के उत्र से राजा को िड़ी वनराशा हुई । चारों में से अि उसे केिल ्ीसरी िेिी से ही थोड़ी उममीद थी ।

    दूसरे वदन ्ीसरी राजकुमारी राजा के पास आई । उसने कहा-‘‘चवलए वप्ा जी, आपको मैं वदखाऊँ वक गेहँू के िे दाने कहाँ हैं ?’’

    राजा रथ पर सिार हो ग्या । रथ महल, नगर पार करके खे् की ्रफ िढ़ चला । राजा ने पूछा, ‘‘आखखर कहाँ रख छोड़े हैं ्तुमने िे सौ दाने ? इन सौ दानों के वलए ् तुम मतुझे कहाँ-कहाँ के चक्कर लगिाओगी ?’’

    ्ि ्क रथ एक िड़े-से हरे-भरे खे् के सामने आकर रुक ग्या । राजा ने देखा - सामने िहु् िड़े खे् में गेहँू की फसल थी । उसकी िावल्याँ हिा में झूम रही थीं, जैसे राजा को कोई खतुशी भरा गी् सतुना रही हों । राजा ने हैरानी से राजकुमारी की ओर देखा । राजकुमारी ने कहा-‘‘वप्ा जी, ्ये हैं िे सौ दाने, जो आज लाखों-लाख दानों के रप में आपके सामने हैं । मैंने उन सौ दानों को िोकर इ्नी अवधक फसल ् ै्यार की है ।’’

    राजा ने उसे गले लगा वल्या और कहा- ‘‘अि मैं वनख्चां् हो ग्या । ्तुम ही मेरे राज्य की सच्ची उत्रावधकारी हो ।’’

    4

    भाषा की वभन््ा का आदर कर्े हुए कोई लोकगी् अपने सहपावठ्यों को सतुनाओ ।

    ‘उत्र भार् की नवद्यों में िारहों मास पानी रह्ा है’ इसके कारणों की जानकारी प्राप्त करके कक्ा में ि्ाओ ।

    अपने पररसर की वकसी शैवक्क सांसथा की रज् महोतसिी पवत्रका का िाचन करो ।

    मराठी समाचार पत्र ्या िालपवत्रका के वकसी पररचछेद का वहांदी में अनतुिाद करो ।

    संभतारणीय

    लेखनीय

    पठनीय

    श्रवणीय

  • 55

    ्ननक = थोड़ामकसद = उद् दे््यखोल = आिरणउममीद =आशाउत्रतानधकतारी = िाररस

    मुितावरेच्कर में प जतानता =दुविधा में पड़नागले लगतानता = प्यार से वमलना

    शब्द वतानटिकता

    ( ) उनच् घटिनताक्रम लगताकर वता्य न्र से नलखो ः१. सभी के उत्र से राजा को िड़ी वनराशा हुई । २. रथ एक िड़े-से हरे-भरे खे् के सामने रुक ग्या । ३. राजा ने हैरानी से राजकुमारी की ओर देखा । 4. अां् में उसे एक उपा्य सूझ ग्या ।

    (4) पररणताम नलखो ः१. गेहँ के दानों को िोने का पररणाम- २. सभी के उत्र सतुनकर राजा पर हुआ पररणाम-३. दूसरी राजकुमारी का सांदूकची में दाने रखने का पररणाम- 4. पहली राजकुमारी को कड़ककर पूछने का पररणाम -

    ( ) सिी नवकल्प चुनकर वता्य न्र से नलखो ः१. जरर इसके पीछे कोई ------- होगा । (उद् दे््य/हे्तु/मकसद)२. सो मैं उनहें ------- खा गई । (वभगोकर/भतुनिाकर/पकाकर)३. ्तुम ही मेरे राज्य की सच्ची ------- हो । (रानी/्यतुिराज्ी/उत्रावधकारी)4. इसे ्तुम अपने पास रखो, ------- साल िाद मैं इनहें माँगूँगा । (चार/सा्/पाँच)

    सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-( ) उत्र नलखो ः

    गेहँ के दानों का चारों िहनों ने वक्या-

    रचना के आधार पर विवभन् प्रकार के ्ीन-्ीन िा््य पाठों से ढूँढ़कर वलखो ।

    िीरिल की िौद् वधक च्तुराई की कहानी के मतुद् दों का फो्डर िनाकर कहानी प्रस्तु् करो ।

    उपयोनज् लेखन

    भतारता नबंदु

    सवयं अधययन

    मैंने समझता------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

  • 6

    िच्चे कभी-कभी च्कर में डाल देने िाले प्र्न कर िैठ्े हैं । अ्पज् वप्ा िड़ा द्यनी्य जीि हो्ा है । मेरी छोिी लड़की ने जि उस वदन पूछ वल्या वक आदमी के नाखून ््यों िढ़्े हैं, ्ो मैं कुछ सोच ही नहीं सका । हर ्ीसरे वदन नाखून िढ़ जा्े हैं । काि दीवजए, िे चतुपचाप दांड सिीकर कर लेंगे; पर वनल्पजज अपराधी की भाँव् छूि्े ही वफर जैसे के ्ैसे हो जा्े हैं । आखखर ्ये इ्ने िेह्या ््यों हैं ?

    कुछ लाख ही िषयों की िा् है, जि मनतुष््य जांगली था; िनमानतुष जैसा । उसे नाखून की जरर् थी । उसकी जीिन रक्ा के वलए नाखून िहु् जररी थे । असल में िही उसके असत्र थे । दाँ् भी थे, पर नाखून के िाद ही उनका सथान था । धीरे-धीरे िह अपने अांग से िाहर की िस्तुओं का सहारा लेने लगा । उसने हड् वड्यों के भी हवथ्यार िनाए । मनतुष््य धीरे-धीरे और आगे िढ़ा । उसने धा्तु के हवथ्यार िनाए । इव्हास आगे िढ़ा । कभी-कभी मैं हैरान होकर सोच्ा हँ वक मनतुष््य आज अपने िच्चों को नाखून न कािने पर डाँि्ा है । िे रोज िढ़्े हैं । मतुझे ऐसा लग्ा है वक मनतुष््य अि नाखून को नहीं चाह्ा । ्ये उसकी भ्यांकर पाशिी िृवत् के जीिां् प्र्ीक हैं । मनतुष््य की पशतु्ा को वज्नी िार भी काि दो, िह मरना नहीं जान्ी ।

    अगर आदमी अपने शरीर की, मन की और िाक की अना्यास घिने िाली िृवत््यों के विष्य में विचार करे ्ो उसे अपनी िास्विक प्रिृवत् पहचानने में िहु् सहा्य्ा वमले । मनतुष््य की नख िढ़ा लेने की जो सहजा् िृवत् है, िह उसके पशतुति का प्रमाण है । उनहें कािने की जो प्रिृवत् है, िह उसकी मनतुष््य्ा की वनशानी है ।

    मेरा मन पूछ्ा है- मनतुष््य वकस ओर िढ़ रहा है ? पशतु्ा की ओर ्या मनतुष््य्ा की ओर ? असत्र िढ़ाने की ओर ्या असत्र कािने की ओर ? मेरी वनिबोध िावलका ने मानो मनतुष््य जाव् से ही प्र्न वक्या है- जान्े हो, नाखून ््यों िढ़्े हैं ? ्यह हमारी पशतु्ा के अिशेष हैं । मैं भी पूछ्ा हँ-जान्े हो, ्ये असत्र-शसत्र ््यों िढ़ रहे हैं ? ्ये हमारी पशतु्ा की वनशानी हैं । सिराज होने के िाद सिभाि्ः ही हमारे ने्ा और विचारशील नागररक सोचने लगे हैं वक इस देश को सच्चे अथ्प मांे

    . नताखून ्यों बढ़्े िैं

    - आचार्य हजारीप्रसाद द् बििेदी

    प्रस्तु् िैचाररक वनिांध में आचा्य्प हजारीप्रसाद ने नाखून िढ़ने को पशतु्ा का वचह् न माना है । नाखून पशतु्ा, ितुराइ्यों का प्र्ीक है । आपका कहना है वक वजस ्रह नाखून िढ़ने पर हम उसे काि दे् े हैं, ठीक उसी ्रह ्यवद वकसी में ितुरी आद्ें आ जाएँ ्ो उनहें त्याग देना चावहए ।

    ज म ः १९०७, िवल्या (उ.प्र.)मृतयु ः १९8९ (उ.प्र.)पररचय ः द् वििेदी जी वहांदी सावहत्य के मौवलक वनिांधकार, उतकृष्ि समालोचक एिां साांसकृव्क विचारधारा के प्रमतुख उपन्यासकार हैं । आपका व्यव््ति िड़ा प्रभािशाली और आपका सिभाि िड़ा सरल और उदार था । आप वहांदी, अांग्ेजी, सांसकृ् और िाांग्ला भाषाओं के विद् िान थे ।प्रमुख कृन्यताँ ः ‘अशोक के फूल’, ‘क्पल्ा’ (वनिांध), ‘िाणभि् ि की आतमकथा,’ ‘पतुनन्पिा’ (उपन्यास) आवद ।

    पररचय

    गद् य संबंधी

    मौनलक सृजन

    सद् गतुणों और दुगतु्पणों में अां्र वलखो ।

  • 7

    सतुखी कैसे िना्या जाए । हमारी परांपरा मवहमाम्यी और सांसकार उजजिल हैं ््योंवक अपने आप पर, अपने आप द् िारा लगा्या हुआ िांधन हमारी सांसकृव् की िहु् िड़ी विशेष्ा है ।

    मनतुष््य पशतु से वकस िा् में वभन् है ! उसमें सां्यम है, दूसरे के सतुख-दुख के प्रव् समिेदना है, श्द् धा है, ्प है, त्याग है । इसीवलए मनतुष््य झगड़े-िांिे को अपना आदश्प नहीं मान्ा, गतुससे में आकर चढ़-दौड़ने िाले अवििेकी को ितुरा समझ्ा है । िचन, मन एिां शरीर से वकए गए असत्याचरण को गल् मान्ा है ।

    ऐसा कोई वदन आ सक्ा है जि मनतुष््य के नाखूनों का िढ़ना िांद हो जाएगा । प्रावणशावसत्र्यों का ऐसा अनतुमान है वक मनतुष््य का अनाि््यक अांग उसी प्रकार झड़ जाएगा, वजस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गई है । उस वदन मनतुष््य की पशतु्ा भी लतुप्त हो जाएगी । शा्यद उस वदन िह मरणासत्रों का प्र्योग भी िांद कर देगा । नाखून का िढ़ना मनतुष््य के भी्र की पशतु्ा की वनशानी है और उसे नहीं िढ़ने देना मनतुष््य की अपनी इचछा है, अपना आदश्प ह ै।

    मनतुष््य मांे जो घृणा है जो अना्यास विना वसखाए आ जा्ी है, िह पशतुति का द् ्यो्क है । अपने को सां्य् रखना, दूसरे के मनोभािों का आदर करना मनतुष््य का सिधम्प है । िच्चे ्यह जानें ्ो अचछा हो वक अभ्यास और ् प से प्राप्त िस्तुएँ मनतुष््य की मवहमा को सूवच् कर्ी हैं ।

    मनतुष््य की चरर्ाथ्प्ा प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सिके मांगल के वलए वनःशेष भाि से दे देने में है । नाखूनों का िढ़ना मनतुष््य की उस अांध सहजा् िृवत् का पररणाम है जो उसके जीिन में सफल्ा ले आना चाह्ी है । उसको काि देना उस सिवनधा्परर्, आतमिांधन का फल है जो उसे चरर्ाथ्प्ा की ओर ले जा्ी है ।

    नाखून िढ़्े हैं ्ो िढ़ें, मनतुष््य उनहें िढ़ने नहीं देगा ।

    मानिी्य मू््य िाले शबदों का चाि्प िनाओ । इन शबदों में से वकसी एक शबद से सांिांवध् कोई प्रसांग/घिना सतुनो और सतुनाओ ।

    ‘सतुरक्ा हे्तु शसत्रों की भरमार’ विष्य के पक्-विपक् में अपने विचार वलखो ।

    विविध सांिेदनशील मतुद् दों/विष्यों (जैसे-जाव्, धम्प, रांग, वलांग, रीव्-ररिाज) के िारे में अपने वशक्क से प्र्न पूछो ।

    पाठ् ्यसामग्ी और अन्य पठन सामग्ी का द्रु् िाचन करके उनमें आए विचारों पर सहपावठ्यों से चचा्प करो ।

    संभतारणीय

    लेखनीय

    पठनीय

    श्रवणीय

  • 8

    ( ) प्र्ीक नलखो ः

    ( ) उत्र नलखो ः१. मनतुष््य की चरर्ाथ्प्ा इन दो िा्ों में है ः- (अ) ------------------------- (आ)-----------------------------२. मनतुष््य का सिधम्प ्यह है ः (अ) ------------------------- (आ)-----------------------------३. मनतुष््य को नाखूनों की जरर् ्ि थी ः (अ) ------------------------- (आ)-----------------------------

    नताखूनों कताे बढ़तानता नताखूनों को कताटिनता

    सूचनतानुसतार कृन्यताँ करो ः-( ) प्रवताि ्तानलकता पूणथि करो ः

    मनतुष््य में पशतुति से वभन््ा दशा्पने िाली िा्ें

    ( ) ननमन शब्दों के नलंग पिचतानकर नलखो - आतमा, व्यव््, िादल, ्ार, नोि, नाखून, पतुस्क, ्वक्या, दही

    ( ) अ्थि के अनुसतार वता्यों के प्रकतार ँढ़कर नलखो ।

    उपयोनज् लेखन वकसी मौवलक मराठी विज्ापन का वहांदी में अनतुिाद करो ।

    शरीर के विवभन् अांगों से सांिांवध् मतुहािरों की अथ्प सवह् सूची िनाओ ।

    भतारता नबंदु

    सवयं अधययन

    मैंने समझता------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

    शब्द वतानटिकतावनमतानुर = िांदर की एक प्रजाव् पताशवी = पशतुि्ननब ध = अज्ानआचरण = ि्ा्पि, व्यिहार

    लु = गा्यि घृणता = नफर्द् यो्क = प्र्ीकचरर्ता्थि्ता = साथ्पक्ा

    8

  • 9

    4. गताँव-शिर

    - प्रदीप शुक्ल

    ज म ः १९६७, लखनऊ (उ.प्र.) पररचय ः कवि प्रदीप शतु्ल जी को वहांदी कवि्ा के प्रव् विशेष श्द् धा है । आप कवि्ा को एक साधना के रप में देख्े हैं । वहांदी की विविध पत्र-पवत्रकाओं में आपकी रचनाएँ छप्ी रह्ी हैं ।प्रमुख कृन्यताँ ः ‘अममा रह्ी गाँि में’ (निगी् सांग्ह), ‘गतु्लू का गाँि’ (िालगी् सांग्ह) आवद ।

    प्रस्तु् निगी् में कवि प्रदीप शतु्ल जी ने गाँि और शहर के दद्प को दशा्प्या है । ्यहाँ शहरों की भीड़-भाड़, भागम-भाग, गाँि से शहरों की ्रफ पला्यन, गाँिों का शहरीकरण आवद का िड़े ही मावम्पक ढांग से िण्पन वक्या है ।

    पररचय

    पद् य संबंधी

    िदला-िदला-सा मौसम हैिदले-से लग्े हैं सतुर ।दीदा फाड़े शहर देख्ागाँि देख्ा िुकुर-िुकुर । व्ल रखने की जगह नहीं है शहर ठसाठस भरे हुए । उधर गाँि में पीपल के हैं सारे पत्े झरे हुए ।मेिट्ो के खांभे के नीचेरा् गतुजारे परमेसतुर ।दीदा फाड़े शहर देख्ागाँि देख्ा िुकुर-िुकुर । इधर शहर में सारा आलम आँख खतुली िस दौड़ रहा ।

    िहाँ रेवड्यो पर सिेशन रामदीन है जोह रहा । उनकी िा् सतुनी है जिसे वदल कर्ा है धतुकुर-पतुकुर ।सतुरसव््या के दोनों लड़केसूर् गए कमाने ।गेहँ के खे्ों में लेवकनवग्ली लगीं घमाने । लँगड़ाकर चल्ी है गै्या सड़कों ने खा डाले खतुर । दीदा फाड़े शहर देख्ा गाँि देख्ा िुकुर-िुकुर ।

    ‘भार्ी्य सांसकृव् के दश्पन देहा्ों में हो्े हैं’ इस ्थ््य पर अपने विचार वलखो ।

    कल्पनता पल्लवन

  • 10

    ( ) ्ुलनता करो ः

    गताँव शिर------------------------

    ------------------------

    अ१. मेिट्ो२. पीपल

    उत्र------------

    आगाँिकसिाशहर

    ( ) उनच् जोन यताँ नमलताओ ः सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-

    ( ) कृन् पूणथि करो ः (4) एक शब्द में उत्र नलखो ः१. लँगड़ाकर चलने िाली -२. पत्े झरा हुआ िृक् -३. िदले-से लग्े हैं -4. जहाँ व्ल रखने की जगह नहीं है ।

    िृक् और पांछी के िीच का सांिाद वलखो ।

    १. गाँि का देखना

    २. शहर का देखना

    शब्द वतानटिकतादीदता = आँख, दृवष्ि, वनगाह परमेसुर = परमे्िर (एक नाम)आलम = दुवन्या, जग्, जहान

    नगल्ली = वगलहरीगैयता = गा्यघमतानता = धूप खाना

    ्या्ा्या् के वन्यम, साांकेव्क वचह् न एिां हे्मेि की आि््यक्ा आवद के चाि्पस िनाकर विद् ्याल्य की दीिारें सतुशोवभ् करो ।

    उपयोनज् लेखन

    पाठ् ्यपतुस्क के पाठों से विलोम और समानाथथी शबद ढूँढ़कर उनकी सूची िनाओ और उनका अलग-अलग िा््यों में प्र्योग करो ।भतारता नबंदु

    सवयं अधययन

    मैंने समझता------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

  • 11

    सतुिह का सम्य था । मैं डाॅ्िर रामकुमार िमा्प जी के प्र्याग सिेशन खसथ् वनिास ‘‘मधतुिन’’ की ओर पूरी रफ्ार से चला जा रहा था ््योंवक १० िजे उनसे वमलने का सम्य ््य था ।

    िैसे ्ो मैंने डाॅ्िर साहि को विवभन् उतसिों, सांगोवष्ठ्यों एिां सममेलनों में देखा था, परां्तु इ्ने वनकि से मतुलाका् करने का ्यह मेरा पहला अिसर था । मेरे वदमाग में विवभन् विचारों का जिार उठ रहा था- कैसे होंगे डाॅ्िर साहि, कैसा व्यिहार होगा उस सावहत्य मनीषी का, आवद । इन ्माम उठ्े और िैठ्े विचारों को वलए मैंने उनके वनिास सथान ‘मधतुिन’ में प्रिेश वक्या । काफी साहस करके दरिाजे पर लगी घांिी िजाई । नौकर वनकला और पूछ िैठा, ‘‘््या आप अनतुराग जी हैं ?’’ मैंने उत्र मेंां वसफ्फ ‘हाँ’ कहा । उसने मतुझे डट्ाइांग रम में विठा्या और ्यह कह्े हुए चला ग्या वक ‘‘डाॅ्िर साहि आ रहे हैं ।’’ इ्ने में डॉ्िर साहि आ गए । ‘‘अनतुराग जी, कैसे आना हुआ ?’’ आ्े ही उनहोंने पूछा ।

    मैंने कहा, ‘‘डाॅ्िर साहि, कुछ प्रसांग जो आपके जीिन से सांिांवध् हैं और उनसे आपको जो महत्िपूण्प प्रेरणाएँ वमली हों उनहीं की जानकारी हे्तु आ्या था ।’’

    डाॅ्िर साहि ने िड़ी सरल्ा से कहा, ‘अचछा, ्ो वफर पूवछए ।’प्र्न ः डाॅ्िर साहि, काव्य-रचना की प्रेरणा आपको कहाँ से

    और कैसे प्राप्त हुई ? इस सांदभ्प में कोई ऐसा प्रसांग ि्ाने का कष्ट करें वजसने आपके जीिन के अां्रांग पहलतुओं को महतिपूण्प मोड़ वद्या हो।

    उत्र ः पहले ्ो मेरे जीिन में समाज की अांध व्यिसथा के प्रव्विद्रोह अपने आप ही उवद् हुआ । सन १९२१ मांे जि मैं केिल साढ़े पांद्रह िष्प का था, गाांधीजी के असह्योग आांदोलन में पाररिाररक एिां सामावजक व्यिधानों से सांघष्प कर्े हुए मैंने भाग वल्या । उस सम्य सकूल छोड़ने की िा् ्ो सोची भी नहीं जा सक्ी थी मगर मध्य प्रदेश के अां्ग्प् नरवसांहपतुर में मौलाना शौक् अली साहि आए और िोले, ‘‘गाांधीजी ने कहा है वक अांग्ेजी की ्ालीम गतुलाम िनाने का एक नतुसखा है ।’’ ्तप्चा् आिाज ्ेज कर्े हुए कहने लगे, ‘‘है कोई माई का लाल जो कह दे वक मैं कल से सकूल नहीं जाऊँगा ।’’ मैंने अपनी माँ के आगे िड़ी ही श्द् धा से सकूल न जाने की घोषणा कर दी । सभी लोग सक्े में आ गए । िा् भी अजीि थी वक उन वदनों एक वडपिी कले्िर का लड़का विद्रोह कर जाए । लोगों ने िहु् समझा्या, वप्ा जी की

    - अनुराग िमा्य

    5. मधुबन

    प्रस्तु् पाठ में श्ी अनतुराग िमा्प ने प्रवसद् ध लेखक डॉ. रामकुमार िमा्प जी का साक्ातकार वल्या है । ्यहाँ अनतुराग जी ने डॉ. िमा्प जी से उनकी काव्य रचना की प्रेरणा, लौवकक-पारलौवकक प्रेम, देश की राजनीव्क खसथव् आवद पर प्र्न पूछें हैं । डॉ. िमा्प जी ने इन प्र्नों के िड़ी िेिाकी से उत्र वदए हैं ।

    पररचय ः अनतुराग िमा्प जी ने वहांदी में विपतुल लेखन वक्या है । आपकी भाषा धारा प्रिाह, सरल एिां आश्य सांपन् हो्ी है । आप वहांदी के जाने-माने लेखक हैं ।

    पररचय

    गद् य संबंधी

    ‘कहावन्यों/कवि्ाओं द् िारा मनोरांजन ्था ज्ान प्राखप्त हो्ी है,’ इसपर अपने म् वलखो ।

    मौनलक सृजन

  • 12

    नौकरी की िा् कही परां्तु मैं घर से वनकल पड़ा ््योंवक गाांधीजी का आदेश मानना था । इस प्रकार सि्पप्रथम मैंने सत्य एिां देश के वलए विद्रोह वक्या । ्ि ्क मैं सोलह िष्प का हो चतुका था और राष्टट्ी्य धिज लेकर नगर में प्रभा् फेरी भी वक्या कर्ा था । ्यह िा् सन १९२१ की ही है और इसी सम्य मैंने देशप्रेम पर एक कवि्ा वलखी । ्यही मेरी कवि्ा का मांगलाचरण था ।

    प्र्न ः आप मध्य प्रदेश से उत्र प्रदेश कैसे आए ?उत्र ः वहांदी प्रेम ने मतुझे मध्य प्रदेश से उत्र प्रदेश आने को प्रेरर्

    वक्या ््योंवक उन वदनाांे नागपतुर वि्िविद् ्याल्य में वहांदी नहीं थी । सन १९२5 मांे मैंने इांिर की परीक्ा उत्ीण्प की, ्तप्चा् उच्च वशक्ा हे्तु प्र्याग वि्िविद् ्याल्य में प्रिेश ले वल्या । मैंने इसी वि्िविद् ्याल्य से एम.ए. की परीक्ा प्रथम श्ेणी में उत्ीण्प की ।

    मैंने देखा वक डाॅ्िर साहि के चेहरे पर गांभीर्ा के भाि साफ प्रव्विांवि् हो रहे हैं। ऐसा प्र्ी् हो रहा था जैसे िे अपने अ्ी् मेेां खो-से गए हैं । मैंने पतुनः सिाल वक्या ।

    प्र्न ः डॉ्िर साहि, प्रा्यः ऐसा देखा ग्या है वक कवि्यों एिां लेखकों के जीिन में उनका लौवकक प्रेम, पारलौवकक प्रेम में िदल ग्या । ््या आपके साथ भी ऐसा हुआ है ?

    उत्र ः अनतुराग जी, प्रेम मनतुष््य की एक प्राकृव्क प्रिृखत् है । सन १९२६ मांे मेरा वििाह हो ग्या और मैं गृहसथ जीिन में आ ग्या । अि मतुझे साखतिक्ा एिां नैव्क्ा से प्रेम हो ग्या । मैंने इसी सम्य, ्यानी सन १९३० में ‘‘किीर का रहस्यिाद’’ वलखा । इ्ना अि््य है वक मेरे जीिन के कुछ अनतुभि कवि्ा के माध्यम से प्रेवष् हुए। मतुझे िचपन से ही अवभन्य का शौक था और प्रा्यः उतसिों के अिसर पर नािकों में भाग भी वल्या कर्ा था ।

    मैंने िा् आगे िढ़ाई और पूछा ।प्र्न ः डॉ्िर साहि, देश की राजनीव्क खसथव् के िारे में आपकी

    ््या रा्य है ?उत्र ः मैं राजनीव् से हमेशा दूर रहा ््योंवक आज की राजनीव् में

    खसथर्ा का अभाि है । ्यद् ्यवप मैं नेहर जी, शासत्री जी, इांवदरा जी एिां मोरारजी भाई से वमल चतुका हँू और उनसे मेरा पररच्य भी है, परां्तु मैंने राजनीव् से अपने आपको सदा दूर रखा, मतुझे राजनीव् में कोई रुवच नहीं है । मैं सावहत्यकार हँू, और सावहत्य वचां्न में वि्िास रख्ा हँ ।

    इ्ना कह्े हुए डॉ्िर साहि ने घड़ी देखी और िोले, ‘‘अनतुराग जी, मतुझे साढ़े ग््यारह िजे एक का्य्प से जाना है ।’’ ्तप्चा् उनहोेांने मतुझे एक कुशल अवभभािक की भाँव् आशीिा्पद दे्े हुए विदा वक्या ।

    साक्ातकार लेने के वलए वकन-वकन प्र्निाचक शबदों का प्र्योग हो सक्ा है, सूची ्ै्यार करो । प्रत्येक शबद से एक-एक प्र्न िनाकर वलखो ।

    द् विभाषी शबदकोश पढ़कर उसके आधार पर वकसी एक पाठ का द् विभाषी शबदकोश िनाओ ।

    लेखनीय

    पठनीय

    ्यू-ि् ्यूि पर सां् किीर के दोहे सतुनो और सतुनाओ ।

    ‘िेिी िचाओ-िेिी पढ़ाओ’ पर पथनाि् ्य प्रस्तु् करो ।

    संभतारणीय

    श्रवणीय

  • 13

    सूचनता के अनुसतार कृन्यताँ करो ः-( ) संजताल पूणथि करो ः

    (4) कृन् पूणथि करो ः

    ( ) कतारण नलखो ः१. डॉ्िर साहि का राजनीव् से दूर रहने का कारण-२. डॉ्िर साहि का मध्यप्रदेश से उत्र प्रदेश आने के वलए प्रेरर् होने का कारण -

    ( ) कृन् करो ः

    ------------

    ---------------

    पाठ में प्र्यतु्् भू्पूि्प प्रधानमांवत्र्यों

    के नाम वलखो ।

    शब्द वतानटिकतासंगो्ठी = वकसी विष्य पर विशेषज्ों का चचा्पसत्र ्तालीम = वशक्ा, उपदेश

    मुितावर ेवतार उठनता = विचारों की हलचल

    सक्े में आनता = घिराना, अव् भ्यभी् होना

    रामकुमार जी के जीिन की घिनाएँवििाह

    १९३०

    १९२5

    ननमन शब्दों से कृदं्/्द् नध् बनताओ ःवमलना, ठहरना, इनसान, शौक, देना, कहना, भाि, िैठना, घर, धन

    अां्रजाल से डॉ. रामकुमार िमा्प जी से सांिांवध् अन्य सावहवत्यक जानकारर्याँ प्राप्त करो ।

    भतारता नबंदु

    सवयं अधययन

    मैंने समझता------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

    अपने विद् ्याल्य में आ्योवज् विज्ान प्रदश्पनी के उद् घािन समारोह का प्रमतुख मतुद् दों सवह् िृत्ाां् लेखन करो । उपयोनज् लेखन

    गाांधीजी के असह्योग आांदोलन में भाग

    गृहसथ जीिन में इनसे प्रेम हुआ

  • 14

    . जरता यतार से बोलनता सीख लीजे

    - रमेश दत्त शमा्य

    ज म ः १९३९, जलेसर, एिा (उ.प्र)मृतयु ः २०१२पररचय ः शमा्प जी पचास िषयों से पत्र-पवत्रकाओं, रेवड्यो और िी.िी. के माध्यम से िैज्ावनक दृवष्िकोण का प्रचार-प्रसार कर्े रहे । आपको विज्ान लेखन में दज्पन से अवधक पतुरसकार वमल चतुके हैं । आप कक्ा सा्िीं-आठिीं से ही सथानी्य मतुशा्यरों में ‘चचा जलेसरी’ के नाम से वशरक् करने लगे थे ।

    प्रस्तु् गजल के शेरों में शमा्प जी ने प्रेम से िोलना, सही सम्य पर िोलना, िोलने से पहले विचार करना, आतमवन्यांत्रण रखना, मधतुरभाषी होना आवद गतुणों को अपनाने के वलए प्रेरर् वक्या है । आपका मानना है वक हमेशा होंठ सीकर िैठना उवच् नहीं है । आि््यक्ानतुसार आकोश प्रकि करना भी जररी है ।

    पररचय

    पद् य संबंधी

    ‘िाणी की मधतुर्ा सामने िाले का मन जी् ले् ी है ।’ इस ्थ््य पर अपने विचार वलखाे ।

    कल्पनता पल्लवन

    १4

    िाणी में शहद घोलना सीख लीजे,जरा प्यार से िोलना सीख लीजे ।

    चतुप रहने के, ्यारों िड़े फा्यदे हैं,जतुिाँ ि्् पर खोलना सीख लीजे ।

    कुछ कहने से पहले जरा सोवचए,ख्यालों को खतुद ्ौलना सीख लीजे ।

    ्ू-्ड़ाक हो ्या वफर हो ्ू-्ू मैं-मैं,अपने आपको िोकना सीख लीजे ।

    पिाखे की ्रह फिने से पहले,रोशनी के रांग घोलना सीख लीजे ।

    किु िचन ्ो सदा िो्े हैं काँिे,मीठी िोली के गतुल रोपना सीख लीजे ।

    िा् िेिा् कोई चतुभने लगे ्ो,िदलकर उसे मोड़ना सीख लीजे ।

    ्ये वकसने कहा होंठ सीकर के िैठो, जरर् पे मतुँह खोलना सीख लीजे ।

  • 15१5

    सूचनतानुसतार कृन्यताँ करो ः-( ) प्रवताि ्तानलकता पूणथि करो ः

    (4) कनव्ता की अंन्म चतार पंन््यों कता अ्थि नलखो ।

    (5) कनव्ता में आए इस अ्थि के शब्द नलखो ः

    ( ) उत्र नलखो ः१. काँिे िोने िाले -२. चतुभने िाली -३. फिने िाले -

    ( ) चुप रिने के चतार ्तायदे नलखो ः१. २. ३. 4.

    कवि ने इन िा्ों को सीख लेने को कहा है

    ‘्या्ा्या् की समस्याएँ एिां उपा्य’ विष्य पर वनिांध वलखो ।

    उपसगथि/प्रतयय अलग करके मूल शब्द नलखो ः भार्ी्य, आसथािान, व्यव््ति, सनेवहल, िेिा्, वनरादर, प्रत्येक, सतु्योग

    अथ्प शबद(१)(२)(३)(4)

    मधतुकड़िेविचार

    आि््यक्ा

    ------------------------------------

    शब्द वतानटिकताबेबता् = विना िा् सीकर = वसलकर

    जुबताँ = जीभ, मतुँह रोपनता = िोना

    वहांदी साप्तावहक पवत्रकाएँ/समाचार पत्रों से प्रेरक कथाओं का सांकलन करो ।

    उपयोनज् लेखन

    भतारता नबंदु

    सवयं अधययन

    मैंने समझता------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

  • 16

    २३ जतुलाई सतुिह-सतुिह ही समाचार वमला, रजा साहि नहीं रहे, और ्यह सतुन्े ही मानस पिल पर ्यादों की एक क्ार-सी लग गई ।

    वपछले फरिरी की ही िा् है । मैं वद्ली पहुँची थी अपनी ‘गणपव् प्रदश्पनी’ के वलए । सोच रही थी वक रजा साहि शा्यद अपनी वहीलचेअर पर मेरी प्रदश्पनी के उद् घािन के अिसर पर आ जाएँ पर उस रा् कुछ अनहोनी-सी हुई । उस रा् रजा साहि सपने में आए, मतुझे उठा्या, हमने िा्ें की, शो के वलए मतुझे उनहोंने शतुभकामना दी और कहने लगे, सतुजा्ा एक िार मतुझसे वमलने आ जाओ । अि मैं जाने िाला हँ । इसके िाद ्ो रुकना मतुख्कल था । मैं पहुँच गई उनसे वमलने । िे असप्ाल में शून्य की ्रह लेिे हुए थे, मैंने उनके हाथों को छुआ । वसफ्फ साांॅस चल रही थी । अलविदा कहकर लौि आई ।

    रजा साहि अपने धम्प के साथ-साथ उ्ने ही वहांदू और ईसाई भी थे । उनके सिुवड्यो में गणपव् की मूव््प, कॉस, िाइिल, गी्ा, कुरान, उनकी माँ का एक फाेिो, गाांधीजी की आतमकथा ि भार् से लाई हुई मोगरे की कुछ सूखी मालाएँ, सि एक साथ रखा रह्ा था । िे गणेश को भी पूज्े थे और हर रवििार को सतुिह चच्प भी जा्े थे ।

    एक वदन जहाँगीर आि्प गैलरी में प्रदश्पनी देख्े हुए वकसी ने कहा, अरे ्यह ्ो एस.एच. रजा हैं । मैं एकदम सािधान हो गई ््योंवक मेरी सूची में उनका भी नाम था । मैंने उनके पास जाकर कहा-‘‘रजा साहि, आपसे िा् करनी है !’’ िे देख्े ही रह गए ! उनहोंने मतुझे इांिरव्यू वद्या, िहु् सारी िा्ें हुईं । अचानक मतुझसे पूछने लगे वक आप और ््या-््या कर्ी हैं । मैंने कहा, ‘‘मैं कलाकार हँ, पेंि कर्ी हँ ।’’ िे ्तुरां् खड़े हो गए और कहने लगे, ‘‘चलो ्तुमहारा काम देख्े हैं ।’’

    मैं सोच में पड़ गई-मेरा काम ्ो पतुणे में है । उनहें ि्ा्या ्ो िे िोले, ‘‘चलो पतुणे ।’’ ्ाज होिल के सामने से हमने िै्सी ली और सीधे पतुणे पहुँचे । उनहोंने मेरा काम देखा और वफर कहा- ‘‘आपको पेररस आना है । आपका भविष््य िहु् उजजिल है ।’’

    छोिी-से-छोिी िा् भी उनके वलए महततिपूण्प हुआ कर्ी थी । िड़ी ्नम्य्ा और लगन के साथ कर्े थे सि कुछ । पेंविांग विकने के िाद पैवकंग में भी उनकी रुवच हुआ कर्ी थी । कोई इस काम में मदद करना चाह्ा ्ो मना कर दे्े थे । वकसी को हाथ नहीं लगाने दे्े थे । िड़े करीने से, धै्य्प के साथ िे पैवकंग कर्े । कह्े थे- ‘‘लड़की ससतुराल

    . मेरे रजता सतािब - सुजाता िजाज

    प्रस्तु् पाठ में प्रवसद् ध वचत्रकार सै्यद हैदर रजा के िारे में लेखखका सतुजा्ा िजाज ने अपने सांसमरण वलखे हैं । ्यहाँ रजा साहि के सि्पधम्पसमभाि, मानिमात्र से प्रेम, ्यतुिा कलाकारों को प्रोतसाहन, उनकी वजज्ासािृवत्, कृव््यों के प्रव् लगाि आवद गतुणों को दशा्प्या है । इस पाठ में एक सच्चे कलाकार के दश्पन हो्े हैं ।

    ज म ः १९58, ज्यपतुर (राजसथान) पररचय ः ‘सतुजा्ा िजाज जी एक प्रवसद् ध वचत्रकार हैं । आजकल आप पेररस में रह्ी हैं । आपके वचत्र एिां मूव््पकला भार्ी्य रांग में डूिी हुई रह्ी हैं । आपके वचत्रों एिां मूव््प्याांे पर प्राचीन सांसकृव् एिां कला की छाप वदखाई प�